खेल का मैदान: सम्मान की आस में कर्नाटक क्रिकेट के कर्ताधर्ताओं से उम्मीद


मार्च, 1974 में मैं जब पहली बार एक क्रिकेट मैच देखने बंगलूरू के चिन्नास्वामी स्टेडियम में गया था, तब मेरी उम्र सोलह से थोड़ी ही कम थी। तब से मैंने यहां क्लब स्तर के, राज्य स्तर के और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनगिनत मैच देखे। भले ही यह देश का सबसे खूबसूरत या सबसे सुसज्जित खेल का मैदान न हो, लेकिन मैं यहां क्रिकेट देखना सबसे अधिक पसंद करता हूं, क्योंकि मैं कर्नाटक रणजी ट्रॉफी टीम का बहुत पुराना समर्थक हूं और यह उनका (और इस लिहाज से मेरा भी) घरेलू मैदान है। मेरे घर से चिन्नास्वामी स्टेडियम महज 15 मिनट की दूरी पर है। इस स्टेडियम का नामकरण उस व्यक्ति के नाम पर है, जिसने इसके निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई। पेशे से वकील श्रीमान चिन्नास्वामी एक कुशल क्रिकेट प्रशासक भी थे और उनके प्रशासक व्यक्तित्व पर भ्रष्टाचार या भाई-भतीजावाद के दाग नहीं लगे। क्रिकेट के खेल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बेजोड़ थी और उसमें भी खासकर कर्नाटक क्रिकेट की बेहतरी के प्रति वह समर्पित थे।

1960 के दशक की शुरुआत से ही कर्नाटक के, जिसे तब मैसूर कहा जाता था, खिलाड़ियों ने भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना शुरू कर दिया था। लेकिन तमिलनाडु, बॉम्बे, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसी दूसरी मजबूत रणजी टीमों के समान राज्य के पास ऐसा कोई मैदान नहीं था, जिसे वह अपना कह सके। अपने घरेलू मैच टीम बंगलुरू के सेंट्रल कॉलेज में खेलती थी। चिन्नास्वामी ने अकेले दम पर स्थितियों को सुधारने का बीड़ा उठाया। उन्होंने सरकार से शहर के बीचोंबीच एक भूखंड, जो पहले खाली था, पर सेना के नियंत्रण में था, तत्कालीन मैसूर क्रिकेट एसोसिएशन को लंबे समय की लीज पर आवंटित करने का अनुरोध किया, जिसके कि वह सचिव थे। लीज की कागजी कार्रवाई पूरी होने के बाद एसोसिएशन ने एक वास्तुकार और ठेकेदार को काम पर रखा, जिन्होंने सचिव की देख-रेख में काम करते हुए स्टेडियम का निर्माण किया। उनकी वजह से न तो कोई रिश्वत दी गई और न ही ली गई।

इससे समझा जा सकता है कि कर्नाटक राज्य क्रिकेट एसोसिएशन के घरेलू मैदान का नाम एम. चिन्नास्वामी के नाम पर उचित ही रखा गया है। यह गुजरात राज्य क्रिकेट एसोसिएशन जैसा मामला नहीं है, जहां नरेंद्र मोदी के नाम पर क्रिकेट मैदान का नाम रख दिया गया हो। हालांकि आश्चर्य और निराशा की बात यह है कि बंगलूरू के मैदान के विभिन्न स्टैंडों के नाम अब तक राज्य के महान क्रिकेटरों के नाम पर नहीं रखे गए हैं। मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में स्टैंड्स के नाम सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर, विजय मर्चेंट और वीनू मांकड़ जैसे खिलाड़ियों के नाम पर रखे गए हैं। दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान का नाम हाल ही में खेदजनक ढंग से एक राजनेता के नाम पर रखा गया है, लेकिन, वहां कम से कम स्टैंड्स तो बिशन सिंह बेदी, मोहिंदर अमरनाथ और वीरेंद्र सहवाग को उचित सम्मान देते हैं।

इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के मैदानों में भी स्टैंड और गेट के नाम उन क्रिकेटरों के नाम पर रखे गए हैं, जिन्होंने वहां खेलकर अपनी प्रतिष्ठा बनाई है-मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में शेन वार्न, एडिलेड ओवल में क्लेरी ग्रिमेट, लॉर्ड्स में डेनिस कॉम्पटन व बिल एड्रिच और द ओवल में जैक हॉब्स। लेकिन, बंगलूरू का प्रमुख क्रिकेट मैदान कर्नाटक और भारतीय क्रिकेट की हस्तियों, मसलन, जीआर विश्वनाथ, इरापल्ली प्रसन्ना और भागवत चंद्रशेखर के योगदान का जश्न नहीं मनाता है। अतीत में कर्नाटक को भारतीय क्रिकेट का पावर हाउस बनाने वाले स्थानीय क्रिकेटरों के प्रति सार्वजनिक सम्मान की कमी मुझे और राज्य के सभी क्रिकेट प्रशंसकों को लंबे समय से परेशान करती आई है। मैंने एक बार इस मुद्दे को बृजेश पटेल के सामने उठाया, जो क्रिकेट प्रशासक बनने के पहले 1974 में पहली बार रणजी ट्रॉफी जीतने वाली कर्नाटक टीम के सदस्य भी रहे थे। करीब एक दशक पहले जब वह कर्नाटक क्रिकेट प्रशासन के संचालक थे, तब मैंने उनसे स्टैंड्स के नाम विश्वनाथ, प्रसन्ना और चंद्रशेखर के नाम पर रखने का अनुरोध किया था।

आखिर यह विशी की बल्लेबाजी और प्रसाद व चंद्रा की गेंदबाजी ही थी, जिसकी बदौलत कर्नाटक ने दिल्ली और बॉम्बे जैसी अपेक्षाकृत मजबूत टीमों को हराते हुए रणजी ट्राफी का खिताब जीता था। इससे पहले 1971 में भी इसी तिकड़ी के दम पर भारत को वेस्ट इंडीज और इंग्लैंड में पहली बार सीरीज जीतने में कामयाबी मिली थी। इन खिलाड़ियों का सम्मान करने से कर्नाटक क्रिकेट का ही सम्मान होगा। बृजेश पटेल मुझसे सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि ऐसे तो फिर हर क्रिकेटर अपना नाम स्टैंड्स पर चाहने लगेगा। मैंने उनसे कहा कि ऐसा नहीं होगा। खासकर राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले और जवागल श्रीनाथ जैसे बाद के दिग्गज कभी भी विशी, प्रसन्ना और चंद्रा को खुद से पहले सम्मानित किए जाने पर एतराज नहीं करेंगे, क्योंकि इन्हीं खिलाड़ियों को आदर्श मानते हुए ये खिलाड़ी बड़े हुए हैं। इस साल की शुरुआत में मैंने यही विषय एक ऐसे क्रिकेटर के सामने छेड़ा, जो विशी, प्रसन्ना और चंद्रा से जूनियर थे और बाद में पटेल की तरह वह खुद भी क्रिकेट प्रशासक बने थे।

मैं दरअसल रोजर बिन्नी से एयरपोर्ट पर मिला था, जब हम दोनों बंगलूरू जा रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वह चिन्नास्वामी मैदान के स्टैंड्स का नाम अतीत के महान क्रिकेटरों के नाम पर रखने का समर्थन करेंगे। मेरे सवाल का बिन्नी ने बड़ी भव्यता के साथ जवाब दिया कि वह बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं, जो पूरे भारतीय क्रिकेट की बेहतरी के लिए जिम्मेदार है, न कि किसी खास राज्य के लिए। मैंने जब उन्हें याद दिलाया और पूछा कि वह कर्नाटक क्रिकेट संघ के भी अध्यक्ष रह चुके हैं, तब उन्होंने इस मामले में क्या किया। इस पर उन्होंने चुप्पी साध ली। हम कतार में थे, जहां समय ज्यादा लग रहा था। इसलिए, मैंने फिर उनसे अपने और उनके घरेलू मैदानों के स्टैंड्स के नाम विशी, प्रसन्ना और चंद्रा के साथ पहली भारतीय महान महिला क्रिकेटर शांता रंगास्वामी, जो हमारे राज्य की निवासी भी हैं, के नामों पर रखने का आग्रह किया। मैंने उन्हें वरिष्ठ खिलाड़ियों के प्रति व्यक्तिगत और व्यवसायिक ऋण चुकाने की बात भी की, जिसे स्वीकारते तो वह नहीं दिख रहे थे। अलबत्ता, कुछ शर्मिंदा जरूर लग रहे थे।

अपने अंतिम शॉट के तौर पर मैंने उन्हें बताया कि सलमान रश्दी ने अपने हालिया उपन्यास में तीन पात्रों के नाम क्रमश: इरापल्ली, गुंडप्पा और भागवत रखे हैं। कर्नाटक के बारे में लिखते समय इस आंग्ल-अमेरिकी उपन्यासकार तक ने, जिसकी क्रिकेट में कोई खास रुचि भी नहीं है, इन तीनों क्रिकेटरों को सम्मान के लायक समझा है, क्योंकि ये राज्य के इतिहास और यहां के लोगों के लिए मायने रखते हैं। क्रिकेट प्रशासक के तौर पर बृजेश पटेल और बिन्नी, दोनों के पास यह करने का मौका था, लेकिन मुमकिन है कि वे आईपीएल फ्रेंचाइजी चलाने वाले     व्यावसायिक प्रायोजकों को नाराज न करना चाहते हों, या फिर, प्रशासनिक शक्ति के अहंकार से चूर उनको, किसी अन्य खिलाड़ी की सराहना खलती हो। अगले वर्ष कर्नाटक द्वारा पहली बार रणजी ट्रॉफी जीतने की पचासवीं वर्षगांठ है, जो कि भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक युगांतकारी घटना थी। मेरी टीम ने बॉम्बे को हराकर बाकी टीमों के लिए रणजी का दरवाजा भी खोला था। वह भारतीय क्रिकेट के विकेंद्रीकरण और लोकतंत्रीकरण की शुरुआत थी। जब यह हुआ, तब वहां मौजूद मैं हर गेंद देख रहा था।

कर्नाटक के महान क्रिकेटरों को अब तक वह सम्मान नहीं मिल सका है, जिसके वे हकदार हैं, इससे हर भारतीय क्रिकेट प्रशंसक को नाराज होना चाहिए। उम्मीद है कि देर से ही सही, कर्नाटक क्रिकेट के कर्ता-धर्ताओं को अक्ल आए और वे 20 अक्तूबर को, जब विश्व कप के बंगलूरू में होने वाले पांच मैचों में से पहला होगा, तब, चिन्नास्वामी स्टेडियम के स्टैंड्स के नाम कर्नाटक के तीन दिग्गज खिलाड़ियों के नाम करने की घोषणा करें।


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