नई दिल्ली. हिंदू मिथकीय कथाओं पर लोकप्रिय साहित्य की रचना करने वाले नरेंद्र कोहली ने अपनी एक किताब में लिखा है कि उनके सामने भगवान राम आ गए. अगले ही वाक्य में वे ये भी लिखते हैं कि ये राम रामनंद सागर के सीरियल वाले राम हैं. ये महज नरेंद्र कोहली को ही नहीं लगता, बहुत सारे लोग (कम से कम सामन्य लोग) मानेंगे कि राम का ध्यान करते-करते अरुण गोविल का चेहरा जेहन में आ जाना बहुत स्वाभाविक है.
वैसे ये भी हकीकत है कि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों को भी है जो उन्हें खुली आंखों से राम के रूप में ही देखते हैं और गोविल के चरण रज लेकर ‘धन्य’ होते हैं. अरुण गोविल अगर चुनाव जीत जाते हैं तो देश की सबसे बड़ी पंचायत में बीजेपी सांसदों के साथ बैठेंगे, हालांकि 87-88 में राम की भूमिका निभाने के बाद लंबे वक्त तक उन्हें फिल्मों या सीरियलों में कोई खास भूमिका नहीं मिली, जबकि उन्होंने छोटे पर्दे पर शुरुआत उस समय बेहद लोकप्रिय हुए सीरियल ‘विक्रम-बेताल’ में महाराज विक्रामादित्य के मुख्य किरदार से की थी.
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बड़जात्या भी सफलता नहीं दिला सके
ये भी रोचक है कि अरुण गोविल को ताराचंद बड़जात्या ने लांच किया था. 1977 में उन्होंने ‘पहेली’ में अरुण गोविल को काम दिया. वैसे तो बड़जात्या के एक्टर-एक्ट्रेस ने सफलता के रिकॉर्ड कायम किए हैं, लेकिन अरुण गोविल के केस में ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने एक और चर्चित फिल्म में काम किया- सावन को आने दो. गाने लाजवाब थे और फिल्म खूब चली, लेकिन इसकी सफलता का श्रेय अरुण गोविल को नहीं मिला. फिल्म के गीत खूब पसंद किए गए. ‘चांद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा’- जैसे फिल्म के कई लोकप्रिय गीत गाने वाले येशुदास की खूब सराहना हुई. अरुण गोविल को यहां भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली.
‘राम’ बने तो बने ही रह गए, ‘सीता’ पहुंच गई संसद
आगे भी उन्होंने कई फिल्में की, जिससे उन्हें पहचान नहीं मिल सकी. जब रामनंद सागर ने रामायण बनाने की सोची तो उन्हें चुन लिया और ये पहचान उनकी तमाम पहचान पर भारी पड़ गई. अभी लोगों को खूब याद होगा कि टीवी पर रामायण के प्रसारण के वक्त सब कुछ थम जाता था. सभी के घरों में टीवी सेट नहीं थे, फिर भी सभी ने रामायण देखा. बहुत ने धूप अगरु जला कर देखा. लोगों के लिए अरुण गोविल राम ही बन गए.
उन्हें दुनिया के कोने-कोने से राम के तौर पर ही चिट्ठियां आती थी. अरुण गोविल हवाई अड्डे से लेकर कहीं दिख भर जाते, श्रद्धालु उनके पैर पकड़ लेते. अपने बच्चों को आशिर्वाद दिलाने में लग जाते, हालांकि ये स्थिति रामायण के दूसरे किरदार निभाने वालों की भी थी. सीता का किरदार करने वाली दीपिका को सोच समझ कर कपड़े वगैरह पहनने पड़ते. दीपिका तो जल्द ही राजनीति में उतर गईं. उस वक्त बीजेपी को भी कांग्रेस के गढ़ों में एक बड़ोदरा को ढहाने के लिए ऐसे ही किसी किरदार की जरुरत थी. 1991 के चुनाव में “सीता” ने कांग्रेस उम्मीदवार को हरा कर लोकसभा सीट जीत लिया. इसके अलावा रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी भी सांसद रह चुके हैं.
कोरोना में रामायण के प्रसारण से नई पीढ़ी ने भी पहचान लिया
अरुण गोविल रह गए थे. हो सकता है फिल्मों में अपने मुस्कबिल की तलाश में वे राजनीति की ओर न देख सके हों. राम मंदिर के शुभारंभ के अवसर पर उनका भी राजनीतिक अवतार होने के संकेत दिखने लगे थे. अयोध्या में उनका भव्य स्वागत हुआ था. नई पीढ़ी को कोरोना काल में रामायण से टीवी पर रूबरू होने का मौका मिल ही चुका था. अस्सी के बाद जन्म लेने वाले भी ‘इस राम’ को पहचान गए थे.
‘मेरठ अपना शहर है’
सबसे अहम है कि गोविल को उत्तर प्रदेश के मेरठ से बीजेपी का टिकट मिला. उनका जन्म मेरठ में ही 12 जनवरी को आजाद भारत में दूसरे आम चुनाव के साल भर बाद 1958 में हुआ था. पढ़ाई लिखाई मेरठ ही हुई. कुछ वक्त पास के ही सहारनपुर में बिताया. सबब ये है कि पश्चिमांचल के इस सबसे अहम सीट पर प्रचार करने में उन्हें कोई खास दिक्कत नहीं आएगी. अरुण गोविल ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की है. उसके बाद अपने भाई के साथ बिजनेस का गुर सीख बिजनेसमैन बनने के लिए मुंबई गए थे. वहां मायानगरी में राम बन गए और उम्मीद कर रहे थे कि और बड़े रोल उन्हें फिल्मों में मकबूल बनाएगी, लेकिन अब उन्हें राजनीति में उतरना पड़ा है.
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रोल न मिलने की व्यथा, और ‘बड़ा रोल’
व्यक्तिगत मुलाकात में वे राम का किरदार करने के बाद भूमिकाएं न मिलने पर दुख जताते रहे हैं. अरुण गोविल से ऐसी एक मुलाकात लेखक से भी हो चुकी है. लेकिन इस बार एक ऐसी भूमिका में उतरे हैं जहां चुनाव जीतने के बाद उनके पास करने के लिए बहुत कुछ होगा. अब ये उनके ऊपर होगा कि वे कितनी दूरी तक इस दिशा में चलते हैं.