पिछले साल दिसंबर महीने में कैडबरी ने अपनी हेल्थ ड्रिंक बोर्नविटा के 15 प्रतिशत कम शुगर वाले रेंज को लॉन्च किया था.
दिलचस्प यह है कि एक सोशल मीडिया इन्फ्ल्यूंसर रेवंत हिमतसिंगका के एक वीडियो के चलते कंपनी को नया उत्पाद लॉन्च करना पड़ा था.
रेवंत ने अपने न्यूट्रीशन चैनल फूडफार्मर पर एक वीडियो डालते हुए दावा किया कि बोर्नविटा में 50 प्रतिशत शुगर है. इसके बाद केंद्र सरकार की एजेंसियों ने कैडबरी को नोटिस भेजा और कंपनी के ख़िलाफ़ आम लोगों में भी नाराज़गी दिखी.
यह कोई पहली बार नहीं हुआ था. इससे पहले भी खाद्य उत्पादों को लेकर किए गए ग़लत दावों के चलते कंपनियों पर अदालती कार्रवाई हुई है. ऐसे कुछ दिलचस्प मामलों पर बात करते हैं.
बिस्किट कंपनी पर एक लाख का जुर्माना
सितंबर, 2023 में चेन्नई की एक उपभोक्ता अदालत ने आईटीसी कंपनी पर बिस्किट के डब्बे में दावे से एक बिस्किट कम रखने के लिए एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था.
कंपनी ने अपने ‘सनफीस्ट मैरी लाइट बिस्किट’ के एक पैकेट पर लिखा था कि इसमें 16 बिस्किट हैं जबकि डब्बे के अंदर 15 बिस्किट ही थे. चेन्नई के एक उपभोक्ता पी. दिलीबाबू ने बिस्किट के कुछ पैकेट ख़रीदे और उन्होंने नोटिस किया कि डब्बे में 16 की जगह 15 बिस्किट ही हैं.
उनके दावे के मुताबिक़ कंपनी एक बिस्किट कम देकर रोज़ाना 29 लाख रुपये का मुनाफ़ा कमा रही है. कंपनी ने दावा किया था कि बिस्किट वजन के मुताबिक बेचे जा रहे हैं और 15 बिस्किट का वजन वही है, जो पैकेट पर लिखा है.
अदालत ने बिस्किट कंपनी की दलील को स्वीकार नहीं किया. अदालत ने कहा कि ‘कंपनी ने उपभोक्ताओं को भ्रमित किया है. यह व्यापार करने का अनुचित तरीक़ा है और साथ में सेवा में कमी का मामला भी है.’
कंपनी को कहा गया है कि वह इस विज्ञापन को बंद करे. अदालत ने कंपनी पर एक लाख रुपये के जुर्माने के अलावा दिलीबाबू को अदालती खर्चे के लिए दस हज़ार रुपये अतिरिक्त देने का आदेश दिया.
एमवे के उत्पादों का मामला
एमवे के उत्पाद कई बार अदालती विवादों में घिर चुके हैं. दिल्ली में राष्ट्रीय उपभोक्ता मंच ने 2017 में एमवे कंपनी के दो उत्पादों, एमवे मैड्रिड सफेद मूसली (ऐपल) और कोहिनूर अदरक लहसुन पेस्ट को बाज़ार से हटाने का आदेश दिया था.
दरअसल इन उत्पादों को लेकर एक ग़ैर-लाभकारी उपभोक्ता अधिकार संगठन कंज्यूमर गाइडेंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की ओर से एक मामला दायर किया गया था.
संगठन की ओर कहा गया था कि मूसली में दोयम दर्जे के प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल किया गया है जबकि उसके बारे में लेबल्स पर कोई जानकारी नहीं दी गई है, यानी इस मामले में उत्पाद की ग़लत ब्रैंडिंग हो रही है.
वहीं दूसरी ओर लहसुन के पेस्ट में उचित प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल नहीं किया गया, इसलिए ये मिलावटी है. इस मामले में कंपनी से उत्पादों के बारे सही जानकारी देने वाले विज्ञापन जारी करने का आदेश भी दिया गया था.
यह भी कंपनी के अनुचित व्यापार व्यवहार का मामला बना और कंपनी को उपभोक्ता कल्याण कोष में एक लाख रुपये जमा कराने को कहा गया.
इससे पहले, 2015 में एक खाद्य सुरक्षा अदालत ने एमवे के सप्लीमेंट न्यूट्रीलाइट से विभिन्न स्वास्थ्य लाभ पहुंचाने के दावे चलते दस लाख रुपये का जुर्माना लगाया था.
तब अदालत ने कहा था कि कंपनी ने अपने विभिन्न दावों, जिनमें उत्पाद में विशेष प्राकृतिक तत्व शामिल हैं, के संबंध कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं दिया है. हालांकि कंपनी की ओर से भी इस मामले में अपील की गई है.
भ्रामक विज्ञापन
कंपनियां अक्सर अपने विज्ञापनों में बड़े-बड़े दावे करती रहती हैं. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने डाबर कंपनी को ऐसा ही एक दावा करने से रोका.
कंपनी ने अपने खाद्य पेय डाबर वीटा के बारे में दावा किया कि यह ‘भारत का बेस्ट इम्यूनिटी एक्सपर्ट’है. इतना ही नहीं कंपनी का दावा है कि ‘कोई अन्य स्वास्थ्य पेय आपके बच्चे को इससे बेहतर इम्युनिटी नहीं दे सकता.’
विज्ञापनों के लिए एक स्व-नियमित संस्था, भारतीय विज्ञापन मानक परिषद को इसके बारे में शिकायतें मिलीं कि इन दावों का वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है.
इसके बाद माना गया है कि यह दावा भ्रामक है और इससे उपभोक्ताओं के निराश होने की संभावना है. परिषद ने पहले तो डाबर कंपनी से इन विज्ञापनों को वापस लेने का अनुरोध किया. लेकिन डाबर ने अपने दावों को सच ठहराते हुए दिल्ली हाई कोर्ट में जाने का फ़ैसला किया.
अदालत ने कहा कि विज्ञापनों में रचनात्मक स्वतंत्रता के लिए अतिशयोक्ति के भाव की अनुमति तो है लेकिन उसे भ्रामक दावे नहीं करने चाहिए. ख़ासकर मानव स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में ऐसे दावे नहीं करने चाहिए. अदालत ने विज्ञापन परिषद के निर्देश में हस्तक्षेप करने से इनकार भी किया.
मैगी का मामला
खाद्य सुरक्षा से संबंधित यह सबसे चर्चित मामलों में एक है. जून, 2015 में खाद्य नियामक एजेंसी भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफ़एसएसएआई) ने नेस्ले कंपनी उसके प्रमुख उत्पादों में एक मैगी को बाज़ार से हटाने का निर्देश दिया था.
इस निर्देश में कहा गया था कि मैगी नूडल्स में सीसे की मात्रा ज्यादा है और उसमें मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी) भी शामिल है, जबकि कंपनी के विज्ञापनों में दावा किया जा रहा था कि इसमें ‘नो एडेड एमएसजी’ है.
इसके बाद कंपनी ने दावा किया यह नूडल्स खाने में सुरक्षित है लेकिन उसने बाज़ार से नूडल्स को वापस ले लिया.
हालांकि कंपनी बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया और दावा किया कि नूडल्स खाने में सुरक्षित थे, इसे साबित करने का मौका नहीं दिया गया है और एफ़एसएसएआई के परीक्षण मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में नहीं किए गए थे.
बॉम्बे हाई कोर्ट ने देश भर की प्रयोगशालाओं में परीक्षण कराने को कहा और यदि परीक्षण से पता चलता है कि मैगी का सेवन किया जा सकता है, तो कंपनी फिर से उत्पादन शुरू कर सकती है. परीक्षण के परिणामों में पता चला कि नूडल्स में कि सीसा निर्धारित सीमा के भीतर था और कंपनी ने उत्पादन फिर से शुरू कर दिया.
कंपनी ने अपने पैकेटों पर ‘नो एडेड एमएसजी’ का विज्ञापन भी बंद कर दिया है.
उपभोक्ताओं के पास क्या-क्या अधिकार हैं?
भारत में उपभोक्ताओं के पास पैकेज्ड खाद्य उत्पाद के संबंध में अपनी शिकायत दर्ज करने के कई रास्ते हैं.
सबसे पहले उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत उपभोक्ता अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. यह क़ानून उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं और उत्पादों से बचाता है जो जीवन के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं और उत्पादों के संबंध में भ्रामक विज्ञापन हो सकते हैं.
उपभोक्ता फोरम ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद हैं. एक करोड़ रुपये से कम के सामान के लिए उपभोक्ता ज़िला फोरम से संपर्क कर सकते हैं.
एक करोड़ से 10 करोड़ रुपये की ख़रीद के लिए वे राज्य मंच से संपर्क कर सकते हैं और 10 करोड़ से अधिक के उत्पाद की शिकायत के लिए वे राष्ट्रीय मंच से संपर्क कर सकते हैं.
भ्रामक विज्ञापनों के लिए फोरम दो साल की जेल की सजा और दस लाख रुपये तक का जुर्माना लगा सकता है.
उपभोक्ता फोरम के अलावा, उपभोक्ता भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफ़एसएसएआई) के पास भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं.
एफ़एसएसएआई विभिन्न खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता और उनकी पैकेजिंग लेबलिंग आदि के लिए मानक निर्धारित करता है. यह देश में खाद्य सुरक्षा के लिए प्राथमिक निकाय है.
एफ़एसएसएआई के अनुसार, “मिलावटी, असुरक्षित और घटिया खाद्य पदार्थ, लेबलिंग में दोष और खाद्य उत्पादों से संबंधित भ्रामक दावों और विज्ञापनों से जुड़े मामलों के बारे में उपभोक्ता अपनी शिकायतें और प्रतिक्रिया दर्ज कर सकते हैं.”
एफ़एसएसएआई से ईमेल, टेलीफोन या उनके सोशल मीडिया हैंडल के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है.
इसके बाद भारतीय दंड संहिता के तहत धोखाधड़ी और नुकसान पहुंचाने आदि से संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज करने के लिए कुछ विकल्प उपलब्ध हैं.
हालांकि, उपभोक्ता फोरम का दरवाजा खटखटाना विवादों के निवारण के लिए अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला तरीक़ा है. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ कंज्यूमर लॉ एंड पॉलिसी की शोध निदेशक डॉ. सुशीला ने कहा, “मामलों के जल्दी निपटारे की वजह से ही लोग उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के तहत उपभोक्ता मंच का दरवाजा खटखटाना पसंद करते हैं.”
उपभोक्ता अदालत का दरवाजा खटखटाते समय, उपभोक्ता को यह दिखाना होगा कि खाद्य उत्पाद किस प्रकार घटिया है या विज्ञापित उत्पाद से भिन्न है. एफ़एसएसएआई की केंद्रीय सलाहकार समिति के सदस्य जॉर्ज चेरियन ने कहा, “अगर उपभोक्ता केस जीत जाता है, तो उसे पूरी लागत वापस मिल सकती है.”
हालांकि एफ़एसएसएआई के पास शिकायत दर्ज करने के बाद नामित अधिकारी मामले की जांच करते हैं.
विकसित देशों की तुलना में भारत में उपभोक्ता क़ानून के प्रति जागरूकता और क़ानून का अनुपालन का स्तर अभी कम है, लेकिन धीरे-धीरे यह बढ़ रहा है.