जब भारत-पाकिस्तान ने मिलकर ‘छीनी’ इंग्लैंड से 1987 के वर्ल्ड कप की मेज़बानी


1987 का वर्ल्ड कप, जिसे भारत और पाकिस्तान ने मिलकर आयोजित किया

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साल 1983 का क्रिकेट वर्ल्ड कप भारत के कुछ खिलाड़ियों के लिए सैर सपाटे के मौके से ज़्यादा कुछ नहीं था.

क्रिकेट खिलाड़ी संदीप पाटिल लिखते हैं, “भारत मुक़ाबले में कहीं था ही नहीं. पिछले दो क्रिकेट वर्ल्ड कप में उसने शायद ही अच्छा प्रदर्शन किया हो. इसलिए हम भारत से रवाना हुए तो असल में छुट्टी के मूड में थे. क्रिकेट हमारी पहली प्राथमिकता नहीं थी.”

मगर हुआ यह कि भारत न केवल सेमीफ़ाइनल में पहुंच गया बल्कि उसने अपने प्रतिद्वंद्वी और लगातार तीसरे वर्ल्ड कप के मेज़बान इंग्लैंड को हरा दिया.

भारत को अब 25 जून को लॉर्ड्स के मैदान में होने जा रहे फ़ाइनल में पिछली दो बार के विजेता वेस्टइंडीज़ का सामना करना था जिसने सेमीफ़ाइनल में पाकिस्तान को हराया था.

फ़ाइनल खेलने के बावजूद भारत को लॉर्ड्स के दो पास न मिले

1983 वर्ल्ड कप- कपिलदेव की कप्तानी में पहली बार विजेता बनी भारतीय टीम

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क्रिकेट इतिहासकार किशन सिंह लिखते हैं कि भारत के पूर्व शिक्षा मंत्री सिद्धार्थ शंकर रे उन दिनों निजी दौरे पर इंग्लैंड में ही मौजूद थे.

भारत फ़ाइनल में पहुंचा तो उन्होंने भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष एनकेपी साल्वे से यह मैच देखने की इच्छा व्यक्त की.

“साल्वे ने इंग्लिश क्रिकेट बोर्ड (एमसीसी) से दो टिकटों के लिए अनुरोध किया. भारत फ़ाइनल खेल रहा था लेकिन इस अनुरोध को यह कहकर ठुकरा दिया गया कि लॉर्ड्स पर पहला अधिकार एमसीसी सदस्यों का है और भारतीय क्रिकेट बोर्ड को और टिकट नहीं दिए जा सकते.”

“साल्वे को इस पर बहुत ग़ुस्सा आया. इस मामले में उन्हें पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड पीसीबी के अध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल नूर ख़ान का साथ भी मिल गया.”

इस पर तुर्रा यह कि फ़ाइनल मुक़ाबले में एमसीसी सदस्यों के लिए ग्राउंड में सुरक्षित सीटों में से आधी ख़ाली रह गईं क्योंकि इंग्लैंड के फ़ाइनल में न होने की वजह से वो यह मुक़ाबला देखने नहीं आए.

टिकट तो नहीं मिल सके लेकिन कपिल देव की कप्तानी में भारत ने 1983 के वर्ल्ड कप का फ़ाइनल जीत लिया.

क्यों न अगले वर्ल्ड कप के मेज़बान भारत और पाकिस्तान हों?

बीसीसीआई के तत्कालीन अध्यक्ष एनकेपी साल्वे

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अगले दिन लंच पर साल्वे और नूर ख़ान फिर इकट्ठे हुए.

पीटर ओबोर्न पाकिस्तान क्रिकेट के इतिहास पर अपनी किताब ‘वुंडेड टाइगर’ में लिखते हैं, “साल्वे टिकट न मिलने पर बहुत ग़ुस्से में थे. उन्होंने कहा कि काश! फ़ाइनल इंडिया में होता.”

नूर ख़ान तुरंत बोले, “हम अगला वर्ल्ड कप अपने देशों में क्यों नहीं खेल सकते?”

साल्वे ने तुरंत नूर ख़ान की हां में हां मिला दी…

साल्वे ने भी अपनी किताब में इस घटना को ऐसे ही बयान किया है.

ओबोर्न लिखते हैं, “पहले दोनों को अपनी-अपनी सरकारों को इसके लिए तैयार करना था. नूर ख़ान के जनरल ज़ियाउल हक़ के साथ अच्छे संबंध थे, और साल्वे तो भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की काबीना के मंत्री ही थे.”

उसी साल 1983 में नूर ख़ान ने पहली एशियाई क्रिकेट कॉन्फ़्रेंस के आयोजन में मदद की जहां यह प्रस्ताव पेश किया गया, और भारत-पाकिस्तान व श्रीलंका ने दक्षिण एशिया में वर्ल्ड कप के आयोजन के प्रस्ताव का भरपूर स्वागत किया.

एशियाई क्रिकेट काउंसिल

पीटर ओबार्न
लेखक और पत्रकार

BBC

साल्वे टिकट न मिलने पर बहुत ग़ुस्से में थे. उन्होंने कहा, ‘काश! फ़ाइनल इंडिया में होता.’ नूर ख़ान तुरंत बोले, ‘हम अगला वर्ल्ड कप अपने देशों में क्यों नहीं खेल सकते?’

पीटर ओबार्न
लेखक और पत्रकार

श्रीलंका बोर्ड के अध्यक्ष गामिनी दिसानायके ने इस शर्त पर हां में हां मिलाई कि उनके देश का इस आयोजन में कोई आर्थिक योगदान नहीं होगा.

इस तरह से यह भारत और पाकिस्तान पर छोड़ दिया गया कि वे 1987 के क्रिकेट वर्ल्ड कप की मेज़बानी के साझे सपने को साकार करें.

ओबोर्न के अनुसार, “साल्वे और नूर ख़ान ने एशियाई क्रिकेट काउंसिल बनाई. इसकी स्थापना में श्रीलंका ने भी साथ दिया जिसे ताज़ा-ताज़ा टेस्ट खेलने वाले देश का दर्जा मिला था. बांग्लादेश, मलेशिया और सिंगापुर दूसरे संस्थापक सदस्य थे और साल्वे इसके पहले अध्यक्ष बने. इस तरह विश्व क्रिकेट में एक नए वोटिंग ब्लॉक की वृद्धि हुई. औपचारिक प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया गया. दूसरी और आईसीसी ( इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) ने वर्ल्ड कप की मेज़बानी किसी और देश को देने के प्रस्ताव के विरोध में क़ानूनी आपत्तियों का उल्लेख किया.”

भारत और पाकिस्तान को इसकी उम्मीद थी

1987 वर्ल्ड कप से 8 महीने पहले भारत दौरे पर आए पाकिस्तान के जनरल जिया उल हक़

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उस दौर में क्रिकेट का ढांचा बहुत अलग था.

किशन सिंह लिखते हैं,”इंग्लिश क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष अपने आप आईसीसी का अध्यक्ष बन जाता. इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के पास वीटो का अधिकार था. इसका मतलब यह था कि एशियाई ब्लॉक के प्रस्ताव को एमसीसी बिना कारण के भी ठुकरा सकती थी.”

नूर ख़ान ने भारत-पाकिस्तान जॉइंट मैनेजमेंट कमेटी बनाने का प्रस्ताव पेश किया और एनकेपी साल्वे को इसकी अध्यक्षता के लिए कहा जबकि इंद्रजीत सिंह बिंद्रा इसके सचिव बने.

“एक अनौपचारिक संयुक्त कमेटी बनाई गई और क्रिकेट प्रशासक जगमोहन डालमिया ने आईसीसी के लिए अपने प्रस्ताव में लिखा कि वर्ल्ड कप की मेज़बानी को पूरी दुनिया में घुमाया जाए और 1987 के बाद ऑस्ट्रेलिया को 1992 में कप की मेज़बानी का अधिकार दिया जाए.”

और इस तरह पहली दरार पैदा हुई.

“ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट बोर्ड (एसीबी) के अध्यक्ष फ्रेड बेनेट ने पाकिस्तान और भारत के क्रिकेट बोर्ड को आश्वासन दिया कि ऑस्ट्रेलिया गुप्त मतदान में उनके प्रस्ताव के पक्ष में वोट देगा. बेनेट ने विश्वास दिलाया कि वह इस प्रस्ताव को वीटो नहीं करेंगे.”

“आईसीसी में कुल 37 वोट थे. टेस्ट खेलने वाले आठ देशों के दो-दो के हिसाब से 16 वोट थे और बाक़ी वोट एसोसिएट देशों के थे. इंग्लैंड आईसीसी के संसाधनों का केवल 40 प्रतिशत एसोसिएट देशों को देता था.”

नसीम हसन शाह मेज़ पर खड़े हुए और दोनों हाथ उठाकर वोट दिया

विश्व विजेता बनने के बाद 1987 का वर्ल्ड कप बड़ा आयोजन था भारत के लिए

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आईपीजेएममसी (इंडो पाकिस्तान जॉइंट मैनेजमेंट कमेटी) ने वोटिंग में 16-12 से सफलता प्राप्त की लेकिन इंग्लैंड ने आपत्ति कर दी.

अमृत माथुर लिखते हैं कि इंग्लैंड के अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने पाकिस्तान से संबंध रखने वाले नसीम हसन शाह की वोटिंग नहीं देखी क्योंकि उनका क़द छोटा था. (नसीम हसन शाह बाद में पाकिस्तान के चीफ़ जस्टिस और क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष बने.)

इस पर जस्टिस शाह ग़ुस्से में आ गए और दोबारा गिनती के दौरान दोनों हाथ हवा में उठाकर मेज़ पर खड़े हो गए.

अब बारी थी पैसों के इंतजाम की. तब दोनों देशों को एक बड़े अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए जरूरी रक़म की व्यवस्था करते हुए इसके आयोजन की अपनी क्षमता के बारे में पूर्वाग्रह को ख़त्म करना था.

ऐसे हुआ पैसों का इंतज़ाम

1987 वर्ल्ड कप की कवरेज के लिए दुनिया भर की मीडिया टीमें पहुंची

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ओबोर्न लिखते हैं, “नूर ख़ान और साल्वे अपनी-अपनी सरकारों को वर्ल्ड कप प्रोजेक्ट के लिए स्टेडियम और क्रिकेट ढांचे की बेहतरी के लिए पैसा लगाने पर राज़ी करने में कामयाब रहे.”

माथुर लिखते हैं कि साल्वे ने लंदन में रहने वाले एक भारतीय व्यापारी से मुलाक़ात की जिसने आसानी से अदायगी करने और वर्ल्ड कप को स्पॉन्सर करने की पेशकश की.

उस समय के भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह अच्छा ना लगा. राजीव गांधी ने अपने उस समय के वित्त मंत्री (और बाद में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी वीपी सिंह) को निर्देश दिया कि वह बीसीसीआई को ज़रूरी रक़म जारी करें.

अब एक वैकल्पिक टाइटल स्पॉन्सर की तलाश थी. साल्वे और बिंद्रा ने देश भर के कारोबारी लोगों के साथ बातचीत की जिसके बाद वह टेक्सटाइल टायकून धीरूभाई अंबानी के नाम पर सहमत हुए.

बिंद्रा के अनुसार समझौते पर दस्तख़त करने के समय अंबानी की एक शर्त थी कि वह वर्ल्ड कप से ठीक पहले भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले एक प्रदर्शनी मैच में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ बैठेंगे जिसे राष्ट्रीय टेलीविज़न पर सीधे प्रसारित किया जाएगा.

“यानी यह संदेश देना था के उनकी कंपनी रिलायंस के सरकार के साथ अच्छे संबंध हैं.”

ओबोर्न लिखते हैं कि रिलायंस ने 70 मिलियन रुपए (उस समय के सरकारी रेट के अनुसार 4.7 मिलियन पाउंड के बराबर) रक़म की पेशकश की और इस तरह साल्वे और नूर ख़ान इस स्थिति में आए कि इंग्लैंड के मुक़ाबले में दूसरे बोर्ड से पचास प्रतिशत अधिक इनामी राशि का वादा कर सकें.

इस तरह आईपीजेएमसी ने 1987 के आईसीसी वर्ल्ड कप की मेज़बानी के अधिकार प्राप्त कर लिए लेकिन इंग्लिश क्रिकेट बोर्ड के पदाधिकारी इसके बाद भी कई सालों तक क़ानूनी आपत्तियां करते रहे.

ओवर्स पहली बार कम होकर 50 हुए

1987 के वर्ल्ड कप की विजेता बनी ऑस्ट्रेलिया की टीम

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ओबोर्न के अनुसार अब इंग्लैंड की आपत्ति यह थी कि भारत और पाकिस्तान में क्योंकि सूरज जल्दी डूब जाता है, इसलिए दिन भर में 60 ओवर का मैच होना असंभव है. याद रहे कि तब फ़्लड लाइट्स मैच नहीं होते थे. इस पर साल्वे और नूर ख़ान का सीधा सा जवाब था- मैचों को 50 ओवर्स का कर दें.

इंग्लैंड की ओर से अगला शक ब्रॉडकास्टिंग की क्षमता के बारे ज़ाहिर किया गया मगर आईसीसी को यह आपत्ति दूर करने का भी विश्वास दिलाया गया.

माथुर के अनुसार, “साल्वे और बिंद्रा को राष्ट्रीय प्रसारण संस्था दूरदर्शन से भी निपटना पड़ा जिसने वर्ल्ड कप की कवरेज के बदले मेज़बानों से रक़म की मांग की और इस समस्या से निपटने के लिए राजीव गांधी से कहना पड़ा. दूसरी ओर पीटीवी पाकिस्तान में इस इवेंट की कवरेज कर रहा था.

“स्तरीय कवरेज को सुनिश्चित करने के लिए बीबीसी के एक विशेषज्ञ कीथ मैकेंज़ी को प्रोडक्शन की देखरेख और प्रसारण के तकनीकी पहलुओं की निगरानी के लिए रखा गया. इन एहतियाती उपायों के बावजूद कभी-कभार मामला बिगड़ जाता.”

अगली आपत्ति टीमों के भारत और पाकिस्तान में एक से दूसरी जगह यात्रा के बारे में था. वजह यह थी कि इंग्लैंड में एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करना अधिक मुश्किल नहीं था लेकिन पाकिस्तान और भारत दो बहुत बड़े देश हैं. इसके जवाब में सिविल एविएशन के अधिकारियों ने घोषणा की कि वह वर्ल्ड कप के प्रोग्राम के अनुसार अपने फ़्लाइट शेड्यूल को एडजस्ट करेंगे.

वर्ल्ड कप से पहले जब बढ़ने लगा सीमा पर तनाव

वर्ल्ड कप से पहले 1986 में भारत पाकिस्तान सीमा पर बढ़ा सैन्य तनाव

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सब कुछ हो चुका तो 1986 के अंत में भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर सैनिक तनाव बढ़ने लगा. इस पर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया ने तुरंत टीमों की सुरक्षा की समस्या उठा दी.

माथुर लिखते हैं, “इस्लामाबाद के बाहर मरी में होने वाले वर्ल्ड कप की बैठक में पाकिस्तान के सैनिक शासक जनरल ज़ियाउल हक़ ने तनाव की ज़िम्मेदार भारतीय सेना को ठहराया. बिंद्रा ने, जिनका संबंध ज़िया की तरह पंजाब के शहर जालंधर से था, इस गतिरोध को तोड़ने के लिए जनरल ज़ियाउल हक़ को भारत के दौरे का मशवरा दिया.”

बिंद्रा याद करते हैं कि ज़िया ने उनसे पूछ, “क्या भारत के प्रधानमंत्री मुझे आमंत्रित करेंगे?” बिंद्रा का जवाब था, “इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, आप बस आ जाएं.”

“ज़िया ने सहमति जताई और विश्व कप से आठ महीने पहले फ़रवरी 1987 में जयपुर में पाकिस्तान और भारत का टेस्ट मैच देखने जा पहुंचे. इसके बाद से तनाव कम हुआ और भारत और पाकिस्तान के बीच सहयोग की कमी की आशंकाएं दूर हो गईं.”

किशन सिंह के अनुसार क्रिकेट की बाक़ी दुनिया के लिए संदेश साफ़ था और जब 1987 के आईसीसी वर्ल्ड कप की मेज़बानी की बात आई तो भारत और पाकिस्तान एक थे. भारत और पाकिस्तान यह वर्ल्ड कप तो न जीत पाए मगर ये दोनों देश क्रिकेट की दुनिया को अभूतपूर्व विस्तार दे चुके थे.


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