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- Dr. Chandrakant Lahariya’s Column Not Keeping A Close Eye On Our Food Can Cost Us Dearly
13 मिनट पहले
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डॉ. चन्द्रकान्त लहारिया, जाने माने चिकित्सक
पिछले कुछ हफ्तों में स्वास्थ्य और खाद्य पदार्थों से जुड़ी कुछ चिंताजनक खबरें आईं। मार्च 2024 में कर्नाटक सरकार द्वारा किए सर्वेक्षण में पाया गया कि कॉटन-कैंडीज और गोभी मंचूरियन में हानिकारक कृत्रिम खाद्य रंगों की बहुतायत पाई गई। इसके बाद सरकार ने इन पर प्रतिबंध लगाया।
अप्रैल के मध्य में एक अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि भारतीय बाजार में बिकने वाले अधिकांश प्रोटीन पाउडर की सामग्री लेबल से मेल नहीं खाती और कुछ मामलों में उनमें अशुद्धियां भरी पड़ी थीं।
सबसे चिंताजनक खबर अप्रैल के तीसरे सप्ताह में आई कि एक अंतरराष्ट्रीय निर्माता द्वारा निर्मित शिशु खाद्य उत्पाद में चीनी की भरमार होती है। पाया गया कि यही प्रोडक्ट जब यूरोप में बेचा जाता हैं तो उसमें चीनी बिल्कुल नहीं होती है लेकिन भारत और अफ्रीका में होती है। जबकि वैश्विक स्तर पर विशेषज्ञों और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सिफारिश की है कि तीन साल से छोटे बच्चों को अतिरिक्त चीनी नहीं दी जानी चाहिए।
इस बीच भारत के वाणिज्य मंत्रालय ने भी एक बहु-प्रचारित खाद्य उत्पाद के बारे में निर्देश दिया कि इसे स्वास्थ्य-पेय कह कर नहीं बेचा जाना जाना चाहिए। क्योंकि उसमें और कई अन्य खाद्य पदार्थों में खासी मात्रा में चीनी होती है।
पिछले कुछ दशकों में बाजार की ताकतों ने हमारे भोजन पर नियंत्रण कर लिया है और घर में बने स्वस्थ आहार की जगह पैकेज्ड वस्तुओं ने लेनी शुरू कर दी है। कई खाद्य पदार्थों और शिशु आहार के प्रचार पर प्रतिबंध के बावजूद ये कंपनियां सरोगेट विज्ञापन करती हैं।
हानिकारक जंक फूड को स्वास्थ्यवर्धक भोजन के रूप में बेचा और परोसा जाता है। इस पृष्ठभूमि में खाद्य नियामकों की भूमिका अब और अधिक हो गई है। दरअसल पिछले कुछ सालों से एक्टिविस्ट्स भोजन के पैकेज के सामने ट्रैफिक सिगनल लेबलिंग करने की मांग कर रहे हैं, जिससे साफ पता चल सके कि खाद्य पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक है या नहीं। लेकिन नियामक एजेंसियां एक कठिन स्टार रेटिंग की इच्छुक हैं, जहां हानिकारक भोजन को भी स्टार मिलेंगे और गुणवत्ता की झूठी झलक मिलेगी।
फिर अधिकांश भारतीय भी खाद्य सामग्रियों के लेबल को पढ़ने के आदी नहीं हैं। उन सामग्रियों के विवरण भी पैकेज में इतने छोटे अक्षरों में दिए जाते हैं कि उन्हें सरलता से पढ़ा नहीं जा सकता। यही कारण है कि भारत में स्वास्थ्य के लिए अधिक समन्वित प्रयासों का समय आ गया है।
भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक संघ को उभरते खाद्य बाजारों और निम्न-मानक उत्पादों की चुनौती से निपटने के लिए बेहतर स्टाफ और संसाधनों की आवश्यकता है। नीति-निर्माताओं को खाद्य पदार्थों की जांच में तेजी लाने और नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई करने की जरूरत है।
कई देशों में- विशेषकर यूरोप में- यदि किसी उत्पाद की गुणवत्ता खराब है, तो आम जनता द्वारा उसकी शिकायत करना आसान है। भारत में ऐसा नहीं है। नियामक निकायों को इन चीजों को रिपोर्ट करने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने की आवश्यकता है।
कई उत्पाद आपूर्ति आधारित हैं न कि लोगों की आवश्यकताओं पर। नियमों को बेहतर ढंग से लागू करना होगा, ताकि खाद्य कंपनियां बाजार पर दबाव न डालें और अस्वास्थ्यकर उत्पाद न बेचें, लेकिन नागरिकों को सावधान रहने की ज्यादा जरूरत है।
इस पृष्ठभूमि में, यह महत्वपूर्ण है कि लोगों को पैकेज लेबलिंग को समझने और उसकी व्याख्या करने के बारे में जागरूक किया जाए। भारत में अधिकांश पैकेजिंग जानकारी अंग्रेजी में होती है, जिसे हर कोई नहीं समझता है।
सामग्री के आधार पर भोजन की ट्रैफिक सिग्नल लेबलिंग तत्काल आवश्यक है। बच्चों के खाद्य पदार्थों में चीनी मिलाना तो आपराधिक है। फलों के रस जैसे प्राकृतिक उत्पादों को भी एक वर्ष से छोटे बच्चों को नहीं दिया जाता है।
अधिकांश भारतीय खाद्य सामग्रियों के लेबल पढ़ने के आदी नहीं हैं। सामग्रियों के विवरण भी पैकेज में इतने छोटे अक्षरों में दिए जाते हैं कि उन्हें सरलता से पढ़ा नहीं जा सकता। जबकि पश्चिम में फूड को लेकर बहुत जागरूकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)