एक घंटा पहलेलेखक: नीरज झा
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खुद्दार कहानी की तलाश मुझे छत्तीसगढ़ ले आई है। सुबह के 9 बजे हैं। राजधानी रायपुर से करीब 300 किलोमीटर दूर जगदलपुर जिला है।
मैं बस्तर के हरे-भरे जंगल, 200-300 फीट नीचे की खाइयों को निहारते हुए जगदलपुर-दंतेवाड़ा NH-63 हाई-वे की तरफ बढ़ रहा हूं। करीब 45 किलोमीटर आगे चलने पर एक ढाबा दिखता है। बस्तर फूड और लोकल कल्चर को देख मेरी गाड़ी यहां रुक जाती है।
ढाबा दिखने में हाई-फाई नहीं लग रहा है, लेकिन कई VVIP गाड़ियां यहां रुकी हुई हैं।
पुलिस भी ढाबे के बाहर कार के पास खड़ी है। शायद कोई बड़ा अधिकारी खाने के लिए आया हुआ है। एंटर करते ही 25-26 साल का एक लड़का हाफ बाजू की वाइट शर्ट पहने हुए दिखता है।
जब मैं कहता हूं कि इस ढाबे के मालिक राजेश यालम से मिलना है, तो मुस्कुराते हुए जवाब मिलता है, ‘मैं ही हूं सर।’
मैं चौंक जाता हूं कि इतनी कम उम्र का व्यक्ति एक बड़े ढाबे का मालिक…
इसके बाद मैं उसकी उम्र पूछने से खुद को रोक नहीं पाता। क्या उम्र है आपकी? जवाब मिलता है- 25 साल।
राजेश अपने ढाबे के सामने। एक रोज उनके पास खाने को नहीं था, आज वो दूसरों का पेट भरकर पैसे कमा रहे हैं।
दरअसल, जगदलपुर पहुंचने के दौरान यहां के एक स्थानीय पत्रकार ने मुझे राजेश के बारे में बताया था। जब स्थानीय पत्रकार से मैं खुद्दार कहानी को लेकर जिक्र कर रहा था, तो उन्होंने राजेश के बारे में जो बताया, उसने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी।
उन्होंने कहा- ‘एक ऐसा लड़का, जो 7 साल का था तब उसके पिता की नक्सलियों ने हत्या कर दी।
दर्जनों पुलिसकर्मियों को उसकी आंखों के सामने मौत के घाट उतार दिया गया। गोलियों से भून दिया गया।
इसके बावजूद उसने गलत रास्ता नहीं पकड़ा, खुद को साबित करने के लिए संघर्ष करता रहा।
राजेश का बचपन गरीबी में गुजरा है। कई-कई दिनों तक पूरे परिवार को खाना नहीं मिलता था। भूख की आग थोड़ी कम हो जाए और रात में नींद आ जाए, इसलिए चावल को घोलकर पी लेते थे।
उन्होंने चार पैसे कमाने के लिए ईंट-भट्ठे में भी काम किया।
आज राजेश के ढाबे पर 35 लोग काम कर रहे हैं। हर महीने 3 लाख रुपए सिर्फ वो अपने स्टाफ को सैलरी देते हैं।
जब सामने राजेश दिखते हैं, तो मुझे ये सारी बातें एक-एक करके याद आने लगती हैं। राजेश से मैं कहता हूं- ‘आप ही से मिलने आया हूं।’
औपचारिक मुलाकात के बाद राजेश की पूरी कहानी जानने के लिए हम दोनों एक कोने में बैठ जाते हैं। वो शुरुआती दिनों की कहानी सुनाना शुरू करते हैं।
राजेश बस्तर का खानपान न केवल अपने ढाबे पर परोसते हैं, बल्कि देशभर में बस्तर फूड एग्जिबिशन भी लगाते हैं।
ढाबे की खासियत क्या है?
राजेश बताते हैं- ‘ बस्तर फूड। मैं इस ढाबे के माध्यम से इसे ही प्रमोट कर रहा हूं। अच्छी बात यह है कि लोगों को खाना पसंद आ रहा है। मेरे ढाबे पर कलेक्टर, एसपी, विधायक, सांसद से लेकर विदेशी मेहमान तक खाना खाने आते हैं।’
आप बस्तर से ही हैं?
राजेश जवाब देते हैं, ‘नहीं। मैं बीजापुर जिले से हूं। यहां तो मैं ढाबा चलाता हूं।’
मैं उनसे कहता हूं कि कम उम्र में मैच्योरिटी कम लोगों में ही दिखती है, आपको देखकर लगता है कि जिंदगी का तजुर्बा बहुत हो गया आपके पास?
राजेश हंस देते हैं। कहते हैं, ‘ मेरी 25 साल की उम्र न जाने कितने बरसों के बराबर है।
2004-05 की बात है। पापा पुलिस में थे। उस वक्त नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार एक मुहिम चला रही थी। नाम था ‘सलवा जुडूम’। इस शब्द का गौंड भाषा में अर्थ है ‘शान्ति यात्रा’।
इसके जरिए आदिवासी लोगों को पुलिस में शामिल किया जा रहा था, ताकि वो नक्सलियों के गुट में शामिल न हो जाएं और हथियार न उठा लें।
उस समय मेरी उम्र तकरीबन 7 साल रही होगी। छोटे भाई और बहन मां की गोद में थे।
एक रोज नक्सलियों ने पापा को गांव के चौराहे पर घेरकर गोलियों से भून दिया। उनकी मौके पर ही मौत हो गई। एक पल में मां विधवा हो गई। हमारा सब कुछ लुट गया।
बाप का साया उठ गया। मुझे ये सारी चीजें आज भी थोड़ी-थोड़ी याद हैं। उस वक्त मेरी उम्र भी बहुत कम थी, क्या ही याद होगा।
दरअसल, नक्सलियों को डर था कि पापा गांव के दूसरे युवाओं को पुलिस में भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, तो नक्सलियों के गुट को कौन जॉइन करेगा।’
राजेश की जुबान लड़खड़ाने लगती है। उनके चेहरे की मुस्कुराहट ढल जाती है। आंखें भरी हुई हैं, लेकिन मानो वो रो नहीं पा रहे हैं। मैं उन्हें एकटक सुनता जा रहा हूं।
राजेश धीमी आवाज में कहते हैं, ‘चाहता हूं कि एक बार फूट-फूट कर रो लूं, लेकिन आंसू आंखों के बाहर नहीं आते हैं।
अब रोना नहीं आता। बस उन दिनों को याद कर सहम जाता हूं। सोचता हूं कि काश ! मेरे भी पापा होते अभी, तो ये सब देखकर बहुत खुश होते।’
आपकी कोई बचपन की तस्वीर है?
राजेश मेरी तरफ तिरछी नजरों से देखते हैं। कुछ देर ठहरने के बाद कहते हैं, ‘उस वक्त कहां फोटो, स्टूडियो, मोबाइल था। घर में खाने को दाने नहीं थे और आप फोटो-मोबाइल की बात कर रहे हैं। जब पापा की नक्सलियों ने हत्या कर दी, तो कमाई के सारे दरवाजे बंद हो गए। बाद की एक फोटो हम भाई-बहन की जरूर है। आपको वॉट्सऐप कर दूंगा ढूंढकर।’
मां के पीछे खड़े राजेश के पास पिता के साथ एक भी फोटो नहीं। मेरे रिक्वेस्ट करने पर बचपन की एकमात्र फोटो वो ढूंढ पाए। इसमें उनके छोटे भाई-बहन भी मौजूद हैं।
पापा के जाने के बाद गुजारा कैसे हुआ?
राजेश कहते हैं, ‘आय का कोई जरिया बचा नहीं था। खेती भी हमारे पास इतनी नहीं कि सालभर का गुजारा हो सके। सरकार ने पापा के न रहने पर कुछ एक लाख रुपए दिए थे, जिससे कुछ साल तक तो घर का चूल्हा जला, लेकिन उसके बाद फिर से वही आफत।
अब खाएं क्या, करें क्या। चिंता बरकरार थी। आज भी आप मेरे गांव जाएंगे, तो कुछ किलोमीटर की दूरी तय करने में आपको घंटों लग जाएंगे।
हो सकता है गाड़ी फिसलकर गड्ढे में गिर जाए। उस वक्त तो स्थिति और भयावह थी। न घर, न सड़क, न बिजली, न पानी।
पापा की मौत के बाद मां दूसरों के खेतों में जाकर काम करने लगी। इससे जो दो-चार रुपए की दिहाड़ी मिलती, उससे हमारा पेट भरता। जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, तो मां के साथ खेत में काम करने जाने लगा।
इतनी कम उम्र कि कुदाल चलाने से मेरे हाथ में छाले पड़ जाते, घाव हो जाता था, लेकिन मन में यही बैठा रहता था कि यदि आज कुदाल नहीं चलाऊंगा, ये काम नहीं करूंगा, तो रात को भूखे पेट सोना पड़ेगा। चूल्हा नहीं जलेगा।
थोड़े ज्यादा पैसे मिल जाए यह सोचकर मैं ईंट ढोने लगा। जहां नए मकान बनते थे, वहां जाकर ईंट ढोता था। एक ट्रैक्टर ईंट भरने के महज 20 रुपए मिलते थे।
हाथ ऐसा हो जाता, जैसे खून निकल आए।’
… तो आपने पढ़ाई-लिखाई नहीं की?
राजेश के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है। वो कहते हैं, ‘यही तो गलती मैंने नहीं की। मैंने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी। अभी B.Sc कर रहा हूं। पार्ट-3 में हूं।
अपने गांव की आपको बात बताता हूं। कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा, जो 5वीं-छठी से आगे पढ़ा-लिखा हो।
मेरी उम्र का एक भी लड़का आपको खोजने से नहीं मिलेगा, जिसने बीजापुर से बाहर कदम रखा हो। जब मैं गांव में था, तो पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में गाय चराने भी जाता था।
मेरे गांव में आपको एक भी पक्का मकान नहीं मिलेगा, लेकिन आज मुझे खुशी हो रही है गांव का पहला पक्का यानी ईंट का मकान मैं बना रहा हूं।
जब मैंने घर बनाना शुरू किया, तो मां की आंखों से आंसू बहने लगे।
वो कहने लगीं- आज तक पक्का (ईंट का घर) का मुंह नहीं देखा था, बेटे ने दिखा दिया। वो दिन मेरी जिंदगी का सबसे खुशी का दिन था।’
राजेश फूस के घर में रहते थे। कभी-कभी जंगली जानवर हमला कर देते थे। बारिश और ठंड के मौसम में पूरी रात बोरी ओढ़कर गुजारते थे।
राजेश ने बताया कि हर महीने में दो-चार दिन ऐसा आता, जब दाल-रोटी भी नसीब नहीं होती। परिवार चावल का घोल (इसे बस्तर में पेज बोला जाता है) पीकर सोता था।
कई-कई महीने सूखा चावल और नमक खाकर भी गुजारा है। पहनने को कपड़े तक नहीं होते थे। उनकी मां किसी का दिया हुआ या बाजार से फटा-पुराना कपड़ा खरीदकर लाती, जो हम लोग पहनते थे।
राजेश इसी दौरान मुझे अपनी आंखों के सामने हुए नक्सली हमले की एक और कहानी बताते हैं। वो कहते हैं, ‘मेरे चाचा के यहां शादी थी। हमें कुछ सामान लेने कहीं जाना था। मैं कुछ किलोमीटर दूर सड़क किनारे खड़ा था, तभी उधर से एक बस तेज रफ्तार में आई।
हमें लगा कि हर दिन की तरह आज भी बस रुकेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ दूर आगे पुलिस चौकी थी। बस वहां रुकी और थाने पर ताबड़तोड़ फायरिंग होने लगी। किसी फिल्म के दृश्य की तरह बस की छत के चारों तरफ नक्सली खड़े थे। आप सोच सकते हैं कि किस माहौल में मेरा बचपन बीता है। न पैसे- न सुरक्षा, इसके बावजूद कुछ कर दिखाने की लालसा।’
यह कहकर तेज हंस पड़ते हैं राजेश।
मैं कहता हूं- आप पढ़ाई को लेकर अपनी कहानी बता रहे थे।
वो बताते हैं, ‘गांव के एक टीचर थे, जिन्होंने मुझे बताया कि नक्सल पीड़ित परिवार के बच्चों को पढ़ने के लिए सरकार ने दंतेवाड़ा में एक आवासीय स्कूल बनवाया है। वहां एडमिशन हो जाए, तो परिस्थितियां बदल सकती हैं।
मुझे याद है, पहली बार जब मैं बस में बैठकर दंतेवाड़ा आया, तो शहर को देखा। दो-तीन फ्लोर के घरों को देख रहा था। बस की खिड़की से झांक-झांककर देख रहा था। एडमिशन होने के बाद मैं दंतेवाड़ा में रहकर पढ़ने लगा।
मेरे सारे दोस्त के मम्मी-पापा मिलने के लिए आते थे, लेकिन मुझसे मिलने कोई भी नहीं आता था। उस समय सोचता था कि पापा होते, तो जरूर मिलने के लिए आते।
मां के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वो इतना दूर मुझसे मिलने के लिए आए, लेकिन मुझे पता था कि यदि गरीबी से बाहर निकलना है तो पढ़ना पड़ेगा।
कह सकता हूं कि यदि दंतेवाड़ा नहीं आता, तो शायद न तो आज आप मेरी कहानी सुन रहे होते और न मैं अपने गांव का पहला ईंट का घर बना रहा होता।
दूसरों की तरह मैं भी गांव में रहता, मवेशी चराता, जुआ खेलता, शराब पीता। मेरे पास कभी चढ़ने को साइकिल नहीं थी, आज अपनी गाड़ी है।’
धीरे-धीरे शाम हो रही है। राजेश के ढाबे पर कस्टमर की भीड़ बढ़ रही है।
परिवार को पालने के लिए राजेश ने पेट्रोल पंप पर भी काम किया है। जहां वो काम करते थे, वहां मुझे भी अपने साथ लेकर गए और पेट्रोल भरकर दिखाया।
मैं पूछता हूं ढ़ाबा खोलने का विचार कैसे आया?
अब वो ढ़ाबा खोलने का दिलचस्प वाकया बताते हैं। कहते हैं, ‘दंतेवाड़ा से 12वीं कर चुका था, लेकिन मेरे पास कोई काम नहीं था। मैंने अपने एक दोस्त को बोला कि मुझे काम चाहिए।
उसने नजदीक के पेट्रोल पंप पर मुझे काम दिलवा दिया। पहले दिन जब मैं काम करने गया, तो न तो मुझे गाड़ी का नोजल खोलने आता था और न पेट्रोल डालने।
एक व्यक्ति अपनी गाड़ी पेट्रोल भरवाने के लिए पेट्रोल पंप लेकर आया, लेकिन मुझसे गाड़ी का नोजल नहीं खुल रहा था।
उस व्यक्ति ने कहा- नए हो क्या?
मैंने कहा- हां, नया ही हूं।
फिर उनसे बातचीत होने लगी। मैंने उन्हें अपनी सारी परेशानियां बताईं, तो उस व्यक्ति ने कहा- मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें काम देता हूं।
मेरा NGO है, उसी में काम करना। आज भी मैं उन्हें गुरु मानता हूं।
मैं शुरू से अलग-अलग तरह की एक्टिविटी में हिस्सा लेता रहता था। यही देख आगे चलकर जिला कलेक्टर ने मुझे पढ़ने के लिए पुणे भेज दिया।
वो एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी थी। यहां जब मुझे शहद के बारे में पता चला तो मेरा इंट्रेस्ट उस तरफ हो गया।
मैंने बचपन में गांव में लोगों को शहद निकालते हुए देखा था। बाद में शहद का कारोबार शुरू किया। गुजरात, बेंगलुरु समेत अलग-अलग शहरों में जाकर शहद बेचता था, वहां अपना प्रोजेक्ट लगाता था। इससे भी अच्छी-खासी आमदनी हुई।
एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान राजेश को शहद के बिजनेस के बारे में पता चला। उन्होंने इस धंधे में भी हाथ आजमाया।
2020 की बात है। कोरोना की वजह से सब कुछ बंद हो गया। अब फिर से चिंता कि करें क्या…। छत्तीसगढ़ में नीलगिरी के पेड़ की जबरदस्त खेती होती है। मैं उस वक्त देश के दूसरे राज्यों में नीलगिरी के पेड़ों को कटवाकर सप्लाई करवाता था।
इसी दौरान देखा कि इस हाईवे में कहीं पर भी बेहतर खाने-पीने की दुकानें नहीं हैं। जो विदेशी लोग या दूसरे राज्यों के लोग यहां आते हैं, वो बस्तर को सही मायने में नहीं जी पाते हैं। यानी उन्हें यहां का लोकल फूड नहीं मिल पाता है। मैंने इसी थीम को ध्यान में रखकर इस ढाबे की शुरुआत की।
नीलगिरी के पेड़ के वेस्टेज से 3 महीने में इस ढ़ाबे को तैयार किया। लोकल फूड को प्रमोट करना शुरू किया। बस्तर के कई ऐसे फूड हैं, जो सिर्फ मेरे ढाबे पर मिलते हैं, जैसे चापड़ा की चटनी यानी लाल चींटी की चटनी।
मेरी 6 लोगों की टीम है, जो पूरे देश में होने वाले फूड एग्जीबिशन में बस्तर फूड को प्रेजेंट करती है।
चलते-चलते कहते हैं कि एग्जीबिशन के सिलसिले में हाल ही में दिल्ली जाना हुआ था। पहली बार फ्लाइट में चढ़ा, तो रोने लगा। आंख से आंसू बहने लगे। वो लड़का जिसने कभी अपने राज्य की राजधानी नहीं देखी थी, वो देश की राजधानी जा रहा था।
अब एक ही सपना है कि जल्द-से-जल्द अपनी मां के साथ फ्लाइट की उड़ान भरूं।’
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अगले बुधवार, 20 सितंबर को खुद्दार कहानी में पढ़िए-
पापा रेहड़ी लगाते, मैं कस्टमर की जूठी प्लेट धोता
‘परिवार का गुजर बसर हो सके, इसके लिए पापा ठेला लगाते थे। वो हलीम बेचा करते थे। जो कस्टमर खाता, मैं उसकी प्लेट धोता। कई सालों तक ये सब चलता रहा, इसी बीच मेरी पढ़ाई भी जारी रही।
पिछले दिनों जब यूपी लोक सेवा आयोग का रिजल्ट आया, तो उसमें 135वें नंबर पर मेरा भी नाम था। अब मैं जज बन गया हूं।’
खुद्दार कहानी के नेक्स्ट एपिसोड में पढ़िए कि यूपी के संभल के रहने वाले कासिम कैसे गरीबी की दीवार को तोड़ यहां तक पहुंचे…