बस्ती निजामुद्दीन, जो शाहजहानाबाद वाली पुरानी दिल्ली से भी काफी पुरानी बसाहट है, में एक साथ कश्मीरी, बिहारी-पूर्वांचली और अफगान जायकों की नुमाइश लगती है. इधर लाजपत नगर में दर्जनों ढाबेनुमा होटल अफगानी और ईरानी व्यंजन परोसते हैं. दिल्ली में ही नहीं, पूरे एनसीआर में नेपाल और पूर्वोतर के मोमो बिहार के लिट्टी-चोखा और चाऊमीन आदि दिल्ली के पारंपरिक कबाबों को विस्थापित कर चुके हैं.
सड़कों-गलियों के जायकों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि हर छोटे या बड़े शहर की खाऊ गलियों के खाने के अपने-अपने निराले जायके दूसरी जगह की सड़कों के जायकों को लगातार चुनौती देते रहते हैं. बंबई में भेल-पूरी, पाव भाजी और पाव बड़ा का जलवा है, तो कोलकाता में काठी रोल, आलू चॉप, घुघनी का. चेन्नई में दाल बड़ा, तो इंदौर में मकई की खीस से लेकर तले हुए गिराडु. अक्सर एक शहर के सड़कों के खाने अनायास दूसरे शहर में घुस जाते हैं और वहां के गलियों के खाने में अपनी जगह बना लेते हैं. इतना ही नहीं, आज कई गलियों के ये खाने बड़े-बड़े रेस्तरां के मेन्यू में भी अपनी जगह बना चुके हैं.