सिनेमा के भीतर, कला और मनोरंजन के डीएनए की तलाश


सिनेमा की कहानी को आसानी से कह देना सरल नहीं. कला अछूती न रहे. निर्माण के पीछे की सोच और बुनियाद पाठकों तक पहुंच जाए. कहन की गंभीरता बनी रहे. विषय रोचकता के आवरण में घुला-मिला हो, मगर इतना नहीं कि मूल बात छूट जाए. कला की बात हो, कलाकार की भी, कथा के साथ-साथ पटकथा की भी. इतिहास की जानकारी रहे, तो वर्तमान का पुट भी. तात्पर्य यह कि सिनेमा ज्यों-ज्यों बढ़ा है, उसी तरह पाठ्य सामग्री भी पाठकों के सामने आती रहनी चाहिए. तभी सिनेमा का व्यापक स्वरूप पाठकों तक पहुंच पाता है.

‘चित्रपट-माला-दो’ शृंखला में नई पेशकश है ‘दो आसमान – दूर और पास’. लेखक, कवि, पत्रकार और सिनेमा इतिहासकार प्रताप सिंह फिर नई रचना के साथ आए हैं. इस बार सिनेमा की व्यापकता के साथ. इसमें भारत के सिने-इतिहास की व्याख्या है, तो विश्व सिनेमा से तुलना भी. कथा-पटकथा के सृजन से पर्दे पर उतरने तक का अंतर्द्वंद्व है, तो सिनेमा और नाटकों के बीच झूलते कलाकारों के भीतर ताक-झांक भी की गई है. ‘दो आसमान – दूर और पास’ हिंदी सिनेमा को उसका स्वरूप देने वाले दो ख्यातिनाम कलाकारों (अभिनय-कला के दो शिखर; अशोक कुमार-दिलीप कुमार) से शुरू होती है. फिर आपको थियेटर के रास्ते आर्ट फिल्मों और साहित्य-संसार के नजरिये से रूबरू कराती है. आलोचना और समालोचना की दृष्टि से आगे बढ़ते हुए आप छोटा पर्दा तक भी पहुंचते हैं, जहां मशहूर हो चुके धारावाहिकों का कड़ा परीक्षण किया जाना, आपको भा जाएगा.

‘दो आसमान – दूर और पास’ का छुपा हिस्सा, एक इंटरव्यू भी है. जिसे लेखक ने बड़ी विशिष्टता के साथ बड़े और छोटे पर्दे के मध्य रखा है. ऐसा जैसे कि वह अतीत और वर्तमान के बीच पुल बना रहे हों. यह है गोवा इफ्फी के दौरान फिल्मकार अशोक राणे से बातचीत. जैसा कि लेखक ने खुद कहा भी है -चित्रपट के पांच अध्यायों में प्रेमचंद से गुलजार तक और ‘दस्तक’ से ‘दामुल’ तक की ऊंचाइयों व नीचाइयों को छूने का प्रयास किया गया है; ‘दो आसमान – दूर और पास’ के पहले दो अध्यायों तक का सफर पूरा करने के बाद ही आपको यह दावा सच लगेगा. लेखक प्रताप सिंह ने अपनी रचना में सिनेमा के तमाम आयाम समेटने की कोशिश की है. वे बड़ी साफगोई से साहित्य से न्याय नहीं कर पाने की फिल्मकारों-धारावाहिक निर्माताओं की गलती (चालाकी भी) को रेखांकित करते हैं, तो दूसरी तरफ भारतीय सिने-संसार के क्रमिक विकास को भी उतनी ही गंभीरता के साथ विश्व-सिनेमा के साथ कदमताल कराते रहते हैं.

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पुस्तक में संकलित कुछ अनमोल छायाचित्र.

थियेटर और सिनेमा – नाटक और एक्टिंग
सिनेमा को आधार बनाकर लिखी गई पुस्तक का महत्वपूर्ण अध्याय थियेटर से जुड़ा है. सिनेमा में थियेटर की दुनिया से आए या सिनेमा पर नाटकों का प्रभाव, इस विषय को प्रताप सिंह ने ‘दो आसमान – दूर और पास’ में करीब से देखा-परखा है. लेखक इन दोनों के बीच के अंतर्संबंधों पर बखूबी नजरिया पेश करते हैं. एक जगह वे लिखते हैं- ‘हमें उन दिग्गज सितारों, कलाकारों, चरित्र-अभिनेताओं, मौसिकी के उस्तादों, गायकों, अनगढ़-निर्देशकों और नाटक जगत के उस्तादों की आत्मकथात्मक जीवनियों और ‘बायोपिक’ पर भी नजर रखनी चाहिए, जो बताती हैं कि ये दोनों विधाएं अपने अलग वजूद के बावजूद कैसे एक दूसरे के काम आती हैं और पृथ्वीराज कपूर तथा जोहरा सहगल की तरह कैसे संतुलन दोनों माध्यमों में बनाए रखा जा सकता है.’ अनेकानेक उदाहरणों और टिप्पणियों तथा संदर्भों के जरिये लेखक ने इस अध्याय को सर्वाधिक जानकारीपरक बना दिया है. पाठक जब इस अध्याय से गुजरेगा तो उसे न सिर्फ सिनेमा और नाटक के बारे में गंभीर विश्लेषण पढ़ने को मिलेगा, बल्कि उससे इतर विदेशों में हुए ऐसे प्रयोगों के बारे में जान पाएगा.

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छोटे पर्दे के साथ साहित्य का घालमेल
टीवी की दुनिया में झांकना और उसे विषय के स्तर पर कड़ाई से परखना, कम ही हो पाता है. प्रताप सिंह आपको अपनी नई पुस्तक से यह मौका दे देते हैं. अपनी लेखकीय पटुता से वे फिल्मकारों और मनोरंजन जगत की उस चालाकी भरे चलन (शैली) से उजागर करते हैं. प्रेमचंद की रचनाओं को पर्दे पर उतारने, उसके जरिये प्रसिद्धि हासिल करने और फिर साहित्य को छोड़कर रुपहले संसार में लौट जाने की घटनाओं को प्रताप सिंह ने बड़ी कुशलता से जाहिर किया है. पुस्तक का यह अध्याय (बड़ा परदा/छोटा परदा) न सिर्फ रोचक है, बल्कि यह उस पीढ़ी को ज्ञान देने वाला है, जिसने दूरदर्शन पर साहित्यिक रचनाओं से साक्षात्कार किया था. यह पीढ़ी ऐसा मानकर चलती है कि दूरदर्शन के जरिये साहित्य के सामाजिक तत्व को फिल्मवालों ने हम तक पहुंचाकर ‘बड़ा काम’ किया. प्रताप सिंह ने अपने लेखन से ऐसी कोशिशों की कलई खोली है, लेकिन ध्यान इस बात का रखा है कि जो अच्छा काम हुआ, वह बताने से चूक न जाएं.

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बहरहाल, सिनेमाई कलेवर लिए कवर-पृष्ठ के साथ छपी यह पुस्तक एकबारगी आपको सिनेमा के सामान्य साहित्य का बोध कराएगी, लेकिन ज्यों ही आप इसके भीतर प्रवेश करते हैं, आभास बदलता जाएगा. संधीस पब्लिकेशन, गाजियाबाद से छपी ‘दो आसमान – दूर और पास’ आपको सिनेमा की गंभीरता से रूबरू कराएगी. लेखक ने भूमिका में ही मंतव्य स्पष्ट कर दिया है कि – उनके भीतर फिल्में देखने के साथ-साथ इसे पढ़ने की लालसा भी है. इस पुस्तक के प्रकाशन से लेखक की यही मेहनत साकार की गई है.

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