यह पहली बार नहीं है, जब किसी मशहूर सिंगर ने एक्टिंग में किस्मत आजमाई हो। जाने-माने पंजाबी और बॉलिवुड सिंगर गुरु रंधावा निर्देशक जी. अशोक की ‘कुछ खट्टा हो जाए’ में गायक के साथ -साथ हीरो के रूप में भी पेश हुए हैं। उनसे पहले सोनू निगम, हिमेश रेशमिया, आदित्य नारायण, गुरुदास मान, दिलजीत दोसांझ, हार्डी संधू जैसे कई जाने -माने बॉलिवुड-पंजाबी गायक भी फिल्मों में हीरो बनने का प्रयोग कर चुके हैं। उसी परंपरा को गुरु अपनी इस नई फिल्म में आगे बढ़ाते हैं, मगर अफसोस! मनोरंजन की बिरयानी परोसने की कोशिश करने वाले निर्देशक जी. अशोक की यह फिल्म भेल-सेल बन कर रह जाती है।
‘कुछ खट्टा हो जाए’ की कहानी
कहानी की शुरुआत एक बेहद खूबसूरत नोट पर शुरू होती है। आगरा के अमीर परिवार से ताल्लुक रखने वाले हीर (गुरु रंधावा) का मिठाई का फैमिली बिजनेस है। हीर के दादा (अनुपम खेर) और परिवार का एकमात्र सपना है कि हीर शादी करके खानदान को घर का चिराग दे। दूसरी तरफ हीर के ही कॉलेज में पढ़ने वाली इरा (सई मांजरेकर) आईएएस का एग्जाम देकर कलेक्टर बनना चाहती है, मगर उस पर भी परिवार की तरफ से शादी का दबाव है। ऐसे में ये दोनों आपसी सहमति से शादी करने का फैसला करते हैं, मगर एक शर्त के साथ कि जब तक इरा कलेक्टर नहीं बन जाती, तब तक हीर और इरा पति -पत्नी की तरह नहीं, बल्कि दोस्तों की तरह रहेंगे।
शादी के बाद चाची (इला अरुण) गलतफहमी के कारण अफवाह फैला देती है कि इरा गर्भवती है और यहां हीर और इरा भी अपने फायदे के लिए इस झूट को सच्चा बना कर पेश करते हैं। मगर क्या होता है, जब इरा को बहू नहीं, घर की बेटी मानने वाले परिवार पर इरा और हीर का झूठ खुलता है? क्या इरा कलेक्टर बनने का अपना सपना पूरा कर पाती है? क्या हीर अपने खानदान को घर का चिराग दे पाता है? इन तमाम सवालों के जवाब आपको फिल्म देखने पर ही मिल पाएंगे।
‘कुछ खट्टा हो जाए’ का ट्रेलर
‘कुछ खट्टा हो जाए’ मूवी रिव्यू
इसमें कोई दो राय नहीं कि तेलुगू फिल्म ‘भागमती’ और उसका हिंदी रीमेक ‘दुर्गामती’ बनाने वाले निर्देशक जी. अशोक अपनी पत्नी के सपनों को पूरा करने वाले पति की कहानी के साथ अच्छी नीयत से पेश होते हैं, मगर वो कहानी को उस तरह से एग्जिक्यूट नहीं कर पाए। राज सलूजा, निकट पांडे, विजय पाल सिंह और शोभित सिन्हा जैसे लेखकों की टीम कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाती। फिल्म का फर्स्ट हाफ बहुत सारे सीक्वेंसेज के साथ सरपट दौड़ता है, मगर सेकंड हाफ में गाड़ी पटरी से उतर जाती है।
फिल्म का स्क्रीनप्ले बहुत कमजोर है। एडिटिंग में कमी है और इसी कारण एक दृश्य, दूसरे दृश्य के साथ तारतम्यता नहीं बैठा पाते। ऐसा लगता है कॉमेडी, रोमांस और इमोशन के पंचेज को टुकड़ों-टुकड़ों में जोड़कर पेश कर दिया गया है। फिल्म में कई चीजें लॉजिक से दूर होने के कारण फूहड़ लगती हैं। किरदारों की फिलोसफी को निर्देशक अपनी सहूलियत से मोड़ते नजर आते हैं। कहानी कभी आगरा में सेट होती है, तो अचानक बनारस पहुंच जाती है। महिला सशक्तिकरण की पैरवी करने का दावा करने वाली इस फिल्म में होमोफोबिक जोक्स भी सुनने को मिलते हैं। संगीत की बात की जाए तो गुरु रंधावा के कारण ‘इशारे तेरे’, ‘झोल झोल’, ‘जीना सिखाया’ अलग से अच्छे लगते हैं।
अभिनय पक्ष में, गुरु रंधावा की स्माइल और स्क्रीन प्रेसेंज अच्छी है, मगर एक्टिंग के मामले में उन्हें अभी कई कोस और चलने होंगे। अपनी पिछली फिल्मों की तुलना में सई मांजरेकर अभिनय के मामले में संवरी हैं, मगर इस तरह के विविधरंगी रोल में उन्हें और ज्यादा मेहनत की जरूरत थी। दादा के रूप में अनुपम खेर को काफी लंबी स्क्रीन प्रेसेंज मिली है और उन्होंने इसे निभाया भी अपनी विशिष्ट शैली के साथ है। बड़े दिनों बाद इला अरुण जैसी समर्थ अभिनेत्री को चुटीली भूमिका में देखना अच्छा लगता है। अतुल श्रीवास्तव, पारितोष त्रिपाठी और परेश गणात्रा ने अपनी भूमिकाओं में मनोरंजन किया है। निर्देशक जी. अशोक फिल्म में साउथ के जाने-माने एक्टर ब्रह्मानंद को कॉमिडी करने ले तो आए, मगर उनका सही इस्तेमाल नहीं कर पाए।
क्यों देखें- गुरु रंधावा के फैन और हल्की-फुलकी फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।