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एक घंटा पहले
पर्यावरण फोटोग्राफर और लेखिका आरती कुमार राव उपमहाद्वीप के बदलते परिदृश्य को दर्ज करने के लिए सभी मौसमों में दक्षिण एशिया की यात्रा करती हैं.
इस कहानी में उन्होंने तस्वीरों और शब्दों के जरिए लद्दाखी लोगों के जीवन और आजीविका के लिए जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे को दिखाया है.
लद्दाखी लोग हिमालय पर्वत के पिघलते ग्लेशियरों के नीचे भविष्य की अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं. कुमार राव बीबीसी की 100 महिलाओं की सूची में इस वर्ष की जलवायु अग्रदूतों में से एक हैं.
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5 अगस्त 2010 के रात की याद उत्तर भारत के लद्दाख के लोगों के लिए अभी भी ताजा है. उस रात ऐसा लगा जैसे राजधानी लेह के आसपास के इलाके में बादल फट गया हो.
इस ठंडे रेगिस्तान में एक साल में जितनी बारिश होती है, उतनी बारिश उन दो सर्वनाशकारी घंटों में ही हो गई.
कीचड़ का विशाल मलबा अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को निगल गया. बचने की कोशिश कर रहे लोग कीचड़ के नीचे बीच में ही दबे हुए थे.
उस भयावह रात के बाद कई सौ लोगों का कभी पता नहीं चल पाया.

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लद्दाख की ऊंचाई
लद्दाख का इलाका भारत का सबसे उत्तरी पठार है. यह समुद्र तल से 3,000 मीटर (9,850 फीट) से अधिक की ऊंचाई पर स्थित है. ग्रेटर हिमालय रेंज इस क्षेत्र को हर साल आने वाले मानसून से बचाती है. जिस पर बाकी के भारत का अधिकांश भाग निर्भर रहता है.
अभी हाल तक, लद्दाख हर साल 300 दिन तक सूरज से नहाया रहता था, जबकि चट्टान और पहाड़ों के विशाल परिदृश्य पर बमुश्किल चार इंच बारिश होती थी.
बाढ़ के बारे में वहां सुना ही नहीं जाता था.
साल 2010 की विनाशकारी बाढ़ के बाद 2012, 2015 और सबसे हाल ही में 2018 में वहां बाढ़ आई.
जो पिछले सात दशकों में नहीं हुआ था, वह 10 साल से भी कम समय में चार बार हुआ. विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की अजीब मौसमी घटनाएं जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं.
डेढ़ दशक पहले लद्दाख में ग्रामीणों को लगातार पानी की आपूर्ति हो रहती थी. सर्दियों में पिघलने वाला बर्फ जलधाराओं को पानी देता था, ठीक उसी तरह जैसे ग्लेशियरों से पिघला हुआ पानी नीचे गिरता था और वसंत ऋतु में खेती के लिए खेतों में पानी उपलब्ध कराता था.
हालाँकि, जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले 40 सालों में लद्दाख में सर्दियों के औसत तापमान में करीब 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है.
लद्दाख में क्यों कम हो रही है बर्फबारी?
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इस क्षेत्र में ग्लेशियर चोटियों की तरफ पीछे हट गए हैं या पूरी तरह से गायब हो गए हैं.
मैंने पहली बार 2018 में लद्दाख का दौरा किया था. मैं 2019 में लौटी और फिर उस साल वसंत में कोरोना वायरस से फैली महामारी की वजह से मैं कुछ अंतराल के लिए वहां से दूर रही. अंतर चौंकाने वाला था.
बर्फ अब तेजी से पिघलती है. इससे ग्रामीणों को झरने से बहुत कम या बिल्कुल नहीं के बराबर पानी मिल पाता है.
ग्लेशियर अब पहाड़ों में इतने ऊँचे हो गए हैं कि साल के अंत में पिघल जाते हैं. लद्दाख में वसंत ऋतु काफी हरी-भरी और उपजाऊ हुआ करती थी, लेकिन इस साल ये मौसम शुष्क और शांत था.
पानी की कमी के कारण घास के मैदानों में कमी आई है. बकरियों के बड़े झुंडों को रखना अव्यवहारिक होता जा रहा है. चांग्पा चरवाहे अपनी पारंपरिक आजीविका को छोड़ रहे हैं. गैर-देहाती काम की तलाश में वो भारत के अन्य हिस्सों या लेह की ओर पलायन कर रहे हैं.
किसान अपनी जौ और खुबानी के लिए पानी नहीं जुटा पा रहे हैं, इस वजह से वो बड़ी संख्या में वहां से पलायन कर रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन के कारण हुए विनाश के बावजूद, अलग-थलग पड़े इस क्षेत्र के लिए आशा है.
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मार्च 2019 में लद्दाख की अपनी दूसरी यात्रा पर, मेरी मुलाकात इंजीनियर सोनम वांगचुक से हुई.
उन्होंने मुझे बताया कि 2013 में घाटियों की यात्रा के दौरान उन्होंने एक पुल के नीचे बिना पिघली बर्फ का एक बड़ा ढेर देखा, जो सूरज से बचा हुआ था.
बर्फ की उस छोटी मीनार को देखकर एक विचार आया.
वह मेरी ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोले, ”हाई स्कूल में गणित की पढ़ाई हमें बताती है कि शंकु ही सरल उत्तर है.”
वांगचुक सर्दियों में पानी जमाने में ग्रामीणों की मदद करना चाहते थे, जिसे वसंत ऋतु में उपयोग के लिए बचाया जा सके.
पानी को शंकु के आकार में जमा देने से सूर्य के संपर्क में आने वाले सतह में प्रति वर्ग मीटर बर्फ की मात्रा अधिक हो जाएगी.
इसे पिघलने में लगने वाला समय भी बढ़ जाएगा.
कैसे खोजा गया समस्या का समाधान?
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इंजीनियर वांगचुक ने स्थानीय लोगों की एक टीम बनाई और बर्फ की कुप्पी बनाने का सबसे अच्छा तरीका खोजने के लिए प्रयोग करना शुरू किया.
आख़िरकार, उन्हें सही फ़ॉर्मूला मिल गया. टीम ने एक पहाड़ी जलधारा से पानी को पाइप के जरिए घाटी में पहुंचाया.
इसके बाद इस टीम ने पानी को एक वर्टिकल पाइप में बहाया.
इस पाइप के सिरे पर एक बारीक नोजल लगा हुआ था. पानी पाइप के ऊपर चला गया और नोजल के माध्यम से एक महीन स्प्रे के रूप में बाहर निकला.
बर्फ के स्तूप से मनोरंजन
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-30C के रात के तापमान में पानी, स्प्रे पाइप से बाहर निकलते ही जम गया. जैसे-जैसे अधिक से अधिक पानी स्प्रे के रूप में उभरा और बर्फ में बदल गया. इसने एक कुप्पी का आकार ले लिया.
बौद्ध धर्म के ध्यान स्थलों के नाम पर इन्हें बर्फ के स्तूप का नाम दिया गया है. यह अब पूरे लद्दाख में लोकप्रिय हो गया है.
इनमें से कुछ कुप्पलियां तो 100 फीट (30 मीटर) से भी ऊंची हैं.
इन कुप्पियों के ज़रिए उस समुदाय के लिए जल की आपूर्ति की जाती है, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन के कारण अपने प्राकृतिक संसाधनों को बाधित होते देखा है.
बर्फ के इन स्तूपों ने लोगों को मनोरंजन का एक आश्चर्यजनक स्रोत भी दिया है. अब वहां हर साल सबसे ऊंचे स्तूप के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं.
लद्दाखी लोग किसी दूसरी जगह पर किए गए कार्बन उत्सर्जन की कीमत चुका रहे हैं.

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वांगचुक कहते हैं, “इतना ही काफ़ी नहीं है कि हम तकनीकी इनोवेशन करते रहें, मैं व्यवहार में बदलाव की जरूरत के बारे में दुनिया को जागरूक करना चाहता हूँ.”
एक फोटोग्राफर के रूप में, जिसने दक्षिण एशिया की बड़ी जगहों की यात्रा की है, मैं जानती हूं कि लद्दाख अपनी लड़ाई में अकेला नहीं है.
इतिहास में पहली बार भारत और उसके पड़ोसी देश, चीन और पाकिस्तान, जलवायु परिवर्तन नाम के एक आम दुश्मन का सामना कर रहे हैं.
इसमें नदी घाटियों को नष्ट करने और दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों को खतरे में डालने की क्षमता है.
अब वो वक़्त आ गया है कि मानवता के अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरे का एकजुट होकर सामना किया जाए.